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An Undertaking of S.D.College (Lahore) Ambala Cantt

Dear Sir/ Madam  …………………………………..,

अहं बद्धो विमुक्तः स्यामिति यस्यास्ति निश्चयः। नात्यन्तमज्ञो नो तज्ज्ञः सोऽस्मिन् शास्त्रेऽधिकारवान्। योगवासिष्ठ १-२-२                                        जो व्यक्ति स्वयं को आबद्ध मानता है और बन्धन से मुक्त होने के लिए कृत-संकल्प है वह न तो इस विषय में अज्ञानी है और न ही अधिक ज्ञान रखता है। जो इस विषय को समझ सके और इसे जानने की इच्छा जिसके अन्तःकरण में हो वह ही इस शास्त्र का, पथ का अधिकारी है।“

“मनुष्य मनुष्य से टूटे बिना जीवन जी सके इसी अखण्डता का नाम योग है। सभी निर्विरोध भाव से अपनी रचना शक्ति के बल पर आत्मप्रकाशन कर सकें- इस प्रकार की योग की संकल्पना के साथ लोकयात्रा का निर्वाह सामाजिकता को जन्म देता है, जिसमें व्यक्ति अपने स्वार्थों की पूर्ति इसलिए करता है कि वह अपने व्यक्तित्व का अतिक्रमण कर सके। क्योंकि इस अतिक्रमण के बिना योग की सामाजिक और सांस्कृतिक संकल्पना न पूंजीवादी मानसिकता से सम्भव है,  न मार्क्सवादी और न ही मिथ्या धर्माचरण से है, अतः योग जहाँ एक ओर विशिष्ट संस्कार समूह है वहीं विशिष्ट बोधसत्ता भी है।“ डा० रमाकान्त आंगिरस

1st Day Seminar Schedule

Registration 09:30 a.m. to 10:00 a.m.
Inaugural Session (उन्मीलन सत्र – राजयोग) (महायोगी पतञ्जलि को समर्पित) 10:00 a.m. to 11:00 a.m.
Tea Break 11:00 a.m. to 11:15 a.m.
First Technical Session (प्रथम–सत्र- वाग्योग ) (महायोगी भर्तृहरि को समर्पित) 11:15 a.m. to 12:30 p.m.
2nd Technical Session (द्वितीय-सत्र – तन्त्र-योग) (महायोगी गोरखनाथ को समर्पित) 12:30 p.m. to 01:30 p.m.
Lunch 01:30 p.m. to 02:00 p.m.
3rd Technical Session (तृतीय-सत्र – शैव–योग) (महायोगी अभिनव गुप्त को समर्पित) 02:00 p.m. to 03:15 p.m.
Tea Break 03:15 p.m. to 03:30 p.m.
4th Technical Session (चतुर्थ-सत्र – बौद्ध–योग) (महायोगी नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु को समर्पित) 03:30 p.m. to 05:00.p.m.

2nd Day Seminar Schedule

5th Technical Session (पंचमसत्र – आयुर्वेद– ज्योतिष सत्र) (महायोगी चरक, सुश्रुत, पराशर को समर्पित) 10:00 a.m. to 11:30 a.m.
Tea Break 11:30 a.m. to 11:45 a.m.
6th Technical Session (षष्ट-सत्र – जैन–योग)(महायोगी सिद्धसेन दिवाकर, कुन्दकुन्दाचार्य को समर्पित) 11:45 a.m. to 01:30 p.m.
Lunch 01:30 p.m. to 02:00 p.m.
7th Technical Session (सप्तम-सत्र – समन्वय-योग) (स्वामी दयानन्द, अरविन्द, विवेकानन्द को समर्पित) 02:00p.m. to 03:30 p.m.
Tea Break 03:30 p.m. to 03:45 p.m.
Valedictory Session (निमीलन-सत्र – अभिनव-योग)(सद्गुरु जग्गी वासुदेव, श्रीश्री रविशंकर, रामदेव को समर्पित) 03:45p.m.to 5:00 p.m.

आज से साठ सत्तर वर्ष पहले की बात कही जाती है कि लोग “योगी या जोगी” शब्द से एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना करते थे जो अपने कठोर संयम और वैराग्य-बोध के कारण संसार की स्त्री-प्रेमिकाओं के प्रेमपाश में उलझने की अपेक्षा अपनी आत्मसिद्धि के मार्ग पर भ्रमण करने से कहीं रुकता नहीं था। प्रेमिकाओं की पीड़ा भरी मनुहार को लोकगायक गाकर सुनाते थे- “जोगी मत जा मत जा मत जा , पाँव पडूँ मैं चेरी तेरी” ॥ अथवा प्रेमिका उसके संयमी रूप पर मुग्ध होकर अपने को धन्य मानते हुए गाती- “जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे, मेरे रंग गए सांझ सकारे” ॥ अभिप्राय यह कि योगी उस व्यक्ति को कहा जाता था जो विवेक ज्ञान-द्वारा प्रज्वलित आत्मसंयम रूप योगाग्नि में अपनी समस्त लौकिक कामनाओं की आहुति दे देता था। “आत्मसंयम योगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते “ (गीता)

किन्तु प्रत्येक सांस्कृतिक अवधारणा का समय-समय पर सन्दर्भ बदलता रहता है। तात्विक रूप भले ही मौलिक बना रहे । “ मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा” कहकर योगी पर कटाक्ष करने वाले सन्त-मत वाले कबीर ने भी “शब्द-सुरति योग” जैसे योग के तत्कालीन विहंगमयोग, मीनयोग और पिपीलिका योग जैसे अन्य कई प्रकार के योगों का वर्णन करते हुए हठयोग की इडा,पिंगला,सुषुम्ना नाडियों तथा “षट्कमल” की जगह “अष्टकमल” आदि चक्रों का भी निरूपण किया । इस वर्णन से यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि योग-विद्या का प्रभाव सृष्टि के आदिपुरुष हिरण्यगर्भ से लेकर उपनिषद् वाङ्मय, श्रीमद्भगवद्गीता, पातंजल योग, वाग्योग एवम् बौद्ध योगाचार मत आदि के शिखरों से बहता हुआ भारतवर्ष की झुग्गी-झोंपड़ी के भीतर तक कैसे आम आदमी के त्रिविध दुखों के परिहार के प्रयत्न में संलग्न रहा है।

19वीं शताब्दी के उत्तर भाग में तथा 20वीं शताब्दी के संपूर्ण काल में स्वामी दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक, श्री अरविन्द, कविराज गोपीनाथ आदि प्रतिभाएं योग-जीवन-पद्धति को लोक-जीवन के प्रत्येक स्तर तक पहुँचाने का प्रयत्न करती रहीं । स्वातन्त्र्योत्तर काल में भारत की योग-संस्कृति का सामना पश्चिम के युवा लोक के साथ महेश योगी के द्वारा हुआ । पश्चिम के युवाजन ने स्वस्थ जीवन के विकास में योग की मनोदैहिक स्वस्थता प्रदान करने की सामर्थ्य को हृदय से स्वीकर किया और जीवन की व्यावहारिकता में योग को उपयोगी बनाने के लिये उसे भौतिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यात करने का पर्याप्त प्रयास किया । इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि योग-विद्या की भूमिका भारत के राष्ट्रीय स्तर से ऊपर उठकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँच गई । मजहब की चारदीवारी में कई एक मुस्लिम देशों ने भी योग को प्रवेश करने की अनुमति दे दी । इस प्रकार आज के सन्दर्भ में योग एक सार्वभौम महाव्रत के रूप में सर्व स्वीकृत हो गया है।

परन्तु अब प्रश्न यह उठता है कि योग है क्या ? भारतीय परम्परा में यह प्रचलित है कि योग के समान कोई ज्ञान नहीं है और न ही योग के समकक्ष कोई बल है अर्थात् “नास्ति योगसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलम्” । वस्तुतः मनुष्य-मात्र ही अविद्या या अज्ञान के कारण अपने अन्तस् में निहित उन शक्तियों को पहचानने में असमर्थ था जिन शक्तियों के जाग उठने से वह अपने स्वार्थ और परमार्थ में सांमजस्य स्थापित करने में समर्थ हो सकता है। वह ऊर्जा के उस स्रोत को खोल सकता है जो उसके अपने ही मनोदैहिक एवम् परचैतन्य में निहित है। आज का मनुष्य, जो अपनी भौतिक उपलब्धियों के कारण सुख को खोजते खोजते अपने जीने की कला में सन्तुलन खो बैठा है वह अपने मानसिक और बौद्धिक विक्षेप के कारण अपने ही परिवेश का नाश करने को विवश सा हो रहा है। नाना मानसिक दुश्चिन्ताओं से उत्पन्न तनाव के कारण जहाँ वह स्वयम् अशान्त है वहाँ वह अपनी बौद्धिक क्षमताओं के परिसीमन से एक समस्या का समाधान प्राप्त करता है तो उसी समस्या के समाधान के परिणामस्वरूप बीस अन्य समस्याओं के आतंक से घिर जाता है। अन्ध उपभोग-मूलक वृत्ति से जीने की चाह ने उसके शान्त और सुखद भविष्य की राह रोक रखी है। विज्ञान, दैवी शिक्षा के सिद्धान्त, मत-मजहब की अनुगामिता कोई भी उसे अपने भीतर की शक्तियों को जागरित कर उन्हें परिष्कृत करने में सहायता नहीं कर रहे हैं। केवल योग-संस्कृति से यह अपेक्षा इसलिए की जा सकती है क्योंकि प्राचीन भारत में इसका सफल प्रयोग हो चुका है। ईसा-पूर्व और ईसा-पश्चात् शताब्दियों में जब भी भारतीय मानस का भारतीय दर्शनों का चरम उत्थान हुआ तब सभी दर्शन-सिद्धान्तों ने वैदिक, जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर, गाणपत्य आगमों ने अपने-अपने विरोध के शमन के लिये योग-धर्म की शरण प्राप्त की ।

संगोष्ठी के प्रश्न / जिज्ञासाएँ

मैं यह मानता हूँ कि मानव मात्र को परिभाषित करते हुए मनुष्य का ज्ञान एवं मीमांसा के साथ जब सम्बन्ध जुड़ा तभी इसके बाह्य पदार्थों से सम्बन्ध और आन्तरिक जगत् के सम्बन्धों को व्यवस्थित करने की समस्या आ खड़ी हुई। ज्ञान-प्राप्ति ने मनुष्य को जितना बाह्य जगत् के साथ जोड़ा उतना ही अन्तर्जगत् के साथ। इसलिए योग में ज्ञान के समस्त प्रसार को व्यवस्थित करने के लिए स्थूल रूप से तीन कोटियाँ बनाई गईं, जिन्हें क्रमश: ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय कहा जाता है। किन्तु इन कोटियों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि एक-एक कोटि का ही विस्तार अनन्त विस्तार को लिए हुए है।

अत: जहाँ मनुष्य के लिए ज्ञान पाना एक बहुत बड़ी समस्या रही है वहाँ प्राप्त ज्ञान को व्यवस्थित करने की समस्या उससे भी अधिक जटिल रही है। क्योंकि मानव-मात्र के इस ज्ञान के अन्दर ही सर्वत्र समानताओं और विषमताओं की नाना तरंगों का उत्थान और लय समय-समय पर चलता रहा है। विषमताएँ अर्थ से जुड़ी हों या काम से हों या धर्म से। उनसे पैदा होने वाली असहनीय पीड़ा का उपचार करने के लिए जिस उपाय का आश्रय लिया जाता है उसे योग कहते हैं। इस योग में एक और तरह का अन्तर्वर्ती ज्ञान है जो कुछ अस्वीकृतियों और कुछ स्वीकृतियों के साथ मिलकर मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में या सामाजिक जीवन में कुछ समन्वय के माध्यम से मानवीय जीवन में समता लाने का प्रयास करता है।

मनुष्य उभयधर्मी प्राणी है – वह एक साथ दो विश्वों में रहता है –

एक जो विश्व उसे दिया गया है – जड़-प्रकृति एवम्  चेतन प्रकाश का–

दूसरा – प्रतीकों का विश्व है – जो उसने स्वयं निर्मित किया है – अपनी विचार-प्रक्रिया में भाषात्मक, गणितीय, चित्रात्मक, संगीतात्मक, कर्मकाण्ड-सम्बन्धी आदि आदि विभिन्न प्रकार की प्रतीक-प्रणालियों का मनुष्य प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की प्रतीक-प्रणालियों के अभाव में कोई कला, साहित्य, विज्ञान, विधियाँ, दर्शन सम्भव नहीं। इनके अभाव में सभ्यता का आरम्भ ही सम्भव नहीं है। अत: प्रतीक अपरिहार्य हैं।

अब समस्या है इन दोनों प्रदत्तों और प्रतीकों के सम्बन्धों को परिभाषित करने की, दोनों के सम्बन्ध को सुलझाने की । और यह कार्य योग ही कर सकता है।

आप और मैं यह जानते हैं कि विचार अनिवार्य है। परन्तु विचार की अपूर्णता इस सेमिनार का स्रोत है।  इसलिए मूल प्रश्न है कि –

(क) हमारी वाणी में सत्य -कथन की क्षमता कैसे आए और योग से उसका संस्कार कैसे हो?

(ख) इस वक्त समाज जो भावनात्मक और बौद्धिक द्वन्द्व (क्रायसिस) झेल रहा है उसका निस्तार योग के माध्यम से कैसे हो?

संस्कृत विभाग की योग विषयक दृष्टि –

योग की प्रकृति समस्त जीवन-प्रक्रिया को समाविष्ट किए हुए और धारण किए हुए चलती है। चूल्हा चक्की, शिल्प लोकनृत्य से लेकर परब्रह्म तक इसका विस्तार है। अत: योग की मूल प्रकृति के विषय में यह कहना सम्भव है कि –

यह अपौरूषेय है क्योंकि इसका जनक व्यक्ति नहीं परम्परा है।

दूसरा इसका अर्थ लोकविद्या और शास्त्रविद्या है।

तीसरा इसकी दृष्टि-भंगी कामना- प्रधान और सुखवादी होने के साथ साथ अध्यात्मवादी है।

चौथे यह रसवादी और वर्ग-निरपेक्ष, सेक्यूलर, उदार और साम्प्रदायिकता-निरपेक्ष है परन्तु धार्मिकता-मुक्त कहीं नहीं है।

पाँचवें इसमें जिज्ञासा, रहस्यबोध, सौन्दर्यबोध तथा आदिम भय इसमें सहोदर रूप में निहित हैं।

Of late, elements of Indian identity like Yoga are not only being recognized by intellectuals/ scholars/ businessmen/ politicians of world who are thinking in the terms post corporate socio-economic structure of the society but also by the ordinary people of the world who want to live a healthy mental and physical life in this world of pressure and uncertainties. So it becomes imperative for scholars/ academicians to re-evaluate re-interrogate culture of Yoga in a larger perspective because Yoga is not only a set of body exercises. It actually influences our kitchens, foods, food habits, art, music, painting, life styles and behaviors at the individual and collective levels. That is to say that Yoga manifests itself in every activity of human mind-body and it manifests itself in nature as well. So one of the basic element (Yoga) of Indian culture has numerous aspects which needs to be understood and interpreted in right perspective with right intentions- be this yoga in medical science, math, fine arts, home science, economics, psychology, philosophy etc. lot many dimensions are out in the open for the scholars to handle since defining yoga is not an easy task and so is the dynamics of culture of yoga. Yoga with all its variations and varieties seeks not only human welfare but also explores truth in totality with all its dimensions. So dynamics of Yoga lays its basic nature which connects / binds/ synthesizes mind- body of the individuals and the society. Yoga is poetry of nature and science of human mind. Yoga is an underlying unity & integrity in the fragments of the individual’s personality and the different diversities of social systems of humanity. Therefore science of Yoga combines in itself the rare & opposite virtues of “प्रणिपात” and “परिप्रश्न” as the “sine qua non” for obtaining true knowledge which can solve the problem of mystery  on cosmic level as well as on individual level. We are aware of the fact that particular individuals, in whom illumination (प्रज्ञा) dawned, the process misery was solved up to the level of their individual consciousness, but the world or society remained unredeemed. So an undivided whole is nowhere in view because in that other path of complete fulfillment of social system, oneness could not be established by the exclusion of ordinary or normal human beings. That is why up to this day the problem of human misery has not come to an end. So “culture of Yoga” for healthy life practices is a fit case for scholarly investigations.

 

You are free to choose a topic of your conviction, understanding. But it is expected from scholars of English to present views on “Yogic Perspective of Identity in English writings”, Psychologists on “Yogic perspective of wholesome Personality”, Physical education on “Yogic perspective of Sportsman spirit”, from Home Science “ Yogic perspective of Healthy Food practices”, from sociologists “Yogic perspective of healthy society”, from philosophers “Yogic perspective of wholeness” from life scientists “Yogic perspective of consciousness” and so on from other subjects also. 

(Convener of the workshop unconditionally & gratefully acknowledges the contributions of Scholars, books, websites for their ideas, sentences, words that have been borrowed for writing this idea of seminar.)

 

P.S. – 1.  No T.A. / D.A. is admissible as per the guidelines of DHE.  2. Participants have to make their own stay arrangements. 3. Please note that no registrations will be done after 10.30 a.m.  4. Please have your seat latest by 9.45 a.m. 5. Please do not embarrass us by registering anyone else who is not present.

With deep Regards,

 

Ashutosh Angiras                                                                                                                                     Dr. Rajinder Singh

Hony. Director                                                                                                                                               Principal & Patron

09464558667                                                                                                                                               09466596782

[email protected]

 

Prof. Surinder Mohan Mishr, Department of Sanskrit, Kurukshetra University, Kurukshetra

Prof. R.K. Deswal, Chairman, Department of Philosophy, Kurukshetra University, Kurukshetra.

Prof. Dalbir Singh, Chairman, Department of Sanskrit, Pali & Prakrit,, Guru Nanak Dev University, Amritsar.

Dr. Virender Kumar, Incharge, Department of Sanskrit & Pali, Punjabi University, Patiala.

Advisory Board-

Prof. Surinder Mohan Mishr, Department of Sanskrit, Kurukshetra University, Kurukshetra.

Dr. Kamdev Jha, Principal, DAV College, Pehowa.

Dr. Pramod Vajpaye, Principal, ML N College, Yamuna Nagar

Dr. Hariprakash Sharma, Principal, Indira Gandhi National College, Ladwa.

Dr. Vishnu Dutt, Principal, SD Adarsha Sanskrit College, Ambala Cantt.

 

  • Organizing & Reception Committee –

Dr. Uma Sharma, Department of Sanskrit, Prof. Kamlesh Singh, Head, Dept. of Home Science, Dr. (Capt.) Vijay Sharma, Head & ANO, Dept. of Hindi & NCC, Dr. Paramajeet Kaur, Head, Dept. of Music (Instrumental), Dr, Shashi Rana, Head, Dept. of Physical Education, Dr Madhu Sharma, Head, Dept of Music (Vocal), Dr. Prem Singh,, Dept of Physics, Prof. Neetu Bala, Dept. of English, Dr. Saryu Sharma, Dept. of Hindi, Dr. Arti, Dept. of Economics, Prof. Zeenat Madan, Head, Dept of Zoology, Dr. Sonia Batra, Dept of Zoology, Dr. Balesh Kumar, Chief Librarian, Dr. Nirvair Singh, Head, Dept of Punjabi,  Dr. Shrestha Mural, Dept of  Home Science,  Prof. Meenakshi Sharma, Dept of Computer Science, Dr. Madan Rathi, Head, Dept of History, Prof. Anil, Dept. of Economics, Dr. Anju Sharma, Dept. of Hindi, Dr. Piyush Aggarwal, Sanskrit Teacher, Govt. Sr. Sec. School, Sector 28, Chandigarh, Dr. Gaurav Sharma, G S Ayurvedic Medical College, Pilkhua (U.P.), Dr. Nitin Shegal, Dept. of Physical Education, Dr. Rajesh Phor, Dept. of Physical Education , Dr. Summit Chibber, Dept. of Botany, Dr. Leena Goyal, Dept. of Hindi, Dr. Rajani Gupta, Dept. of Maths, Dr. Babita Bisht, Dept. of Maths.  .

 

Students’ Committee

Ashish Kumar, BA III, Depanshu Arora, B.Voc III, Prince Arya, B.A. III, Mohit BBA II, Dilpreet, BAI, Rahul, BBA II,  Saloni, BAI, Shivani, BScI, Shefali, B.Com I, Naveen Saini BAIII,