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An Undertaking of S.D.College (Lahore) Ambala Cantt

Under the Vedavyaasa Restructuring Sanskrit Scheme of Dept. of Sanskrit & SDHDR&T Center of S D College, Ambala Cantt organized discussion on the topic – Emerging Trends In Economic, Political Thinking & 4 Sanskrit-Shaastriya Wellbeing Concerns”  “उभरते आर्थिक,राजनैतिक चिन्तन-प्रचलन एवम् ४ संस्कृतशास्त्रीय कल्याणपरक चिन्ताएं” held at Chandigarh due to holiday in college. Discussion was presided over by Prof. Ramakant Angiras and 7 persons including 2 persons participated via video conferencing.

संस्कृत शास्त्रीय चिन्ताओं के सन्दर्भ में मनुष्य जाति के समक्ष दो ही स्पष्ट गम्भीर एवम् व्यापक समस्याएँ हैं- एक है शुभता (goodness /अच्छाई) की घोर कमी, और  दूसरी समस्या है- शुभता को व्यवस्थित करने  के लिए किसी सटीक पद्धति (नीति/ strategy) का अभाव। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि कल्याण या माङ्गलिकता  की संस्कृति आधुनिकता के तर्क पर आधारित आर्थिक दर्शन के प्रति मोहभंग की अभिव्यक्ति है क्योंकि भोग (अपने लिए अधिक से अधिक उपभोग की वस्तुएँ एकत्रित करना) और प्रभुता (अपने उपभोग के लिए एकत्रित सामग्री से दूसरों पर श्रेष्ठता स्थापित कर दूसरों को ईर्ष्या का भाव देना) पर आधारित कोई भी व्यवस्था न्यायपूर्ण और स्वस्थ समाज की स्थापना नहीं कर सकी और न ही कर सकती है। ऐसे में कल्याण या माङ्गलिकता की संस्कृति कैसे विकसित होगी?

पश्चमी राजनैतिक इतिहास से स्पष्ट होता है कि वहाँ होने वाली सभी क्रान्तियाँ राजपरिवारों से व्यापारी वर्ग को शक्ति का हस्ताँतरण मात्र था। ये क्रान्तियाँ न न्याय के लिए थीं और न ही समानता के लिए। इसलिए कल्याण की बात चाहे कितने ही तर्क से, प्रचार से की जाए उसकी मूल धारा में विकृति रहेगी ही। पूँजीवाद या समाजवाद दोनों चाहे जितना भी कल्याणपरक संस्कृति का प्रचार करें परन्तु उन दोनों का पदार्थवाद ही मनुष्य की सत्ता को स्वीकार नहीं करता तो लोककल्याण की सफ़लता पर प्रश्न चिन्ह लगेंगे ही।

अतः संस्कृतज्ञ होने कारण हम सभी लोककल्याण की समस्याओं का आधुनिकता के नेतृत्व और उनके विषय विशेषज्ञता से स्वतन्त्र हो कर अपनी सांस्कृतिक प्रतिभा और बुद्धि के बल पर समाधान खोजें। क्योंकि संस्कृत-शास्त्र  के सन्दर्भ में लोककल्याण या लोक-मङ्गल  का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के अधिकारों और कर्त्तव्यों से एक साथ जुड़ा हुआ है। संस्कृत परम्परा में अधिकार का सम्बन्ध स्वामित्व से है और उस स्वामित्व के प्रति सुरक्षा और सम्मान की भावना से है। संस्कृत शास्त्र परम्परा  में दो शब्दों का प्रयोग अत्यन्त सघनता से पूरे कालक्रम में दिखाई देता है- एक है- नीति और दूसरा है न्याय। यही दो शब्द अर्थ-व्यवस्था और राजनैतिक- व्यवस्था  के उत्तरदायित्व को स्पष्ट करते हैं कि लोकमङ्गल या कल्याण  के सम्बन्ध में क्या नीति अभीष्ट है और कैसे कल्याण / माङ्गलिकता के सन्दर्भ में न्याय पर आधारित समानता और स्वस्थ समाज विकसित हो? इस संक्षिप्त परिचर्चा का यही केन्द्र बिन्दु था।

You can also fill up the attached Sanskrit Shastra based questionnaire, developed by dept of Sanskrit & SDHDR&T center and also download the ppt if you desire so. Also critically evaluate questionnaires from economic- political perspective.

regards
ashutosh angiras