S.D. Human Development, Research & Training Center | वैदिक कर्म विश्लेषण पद्धति वैदिक कर्म विश्लेषण पद्धति | S.D. Human Development, Research & Training Center
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वैदिक कर्म विश्लेषण पद्धति

निर्देश:१. ‘क’ का अर्थ है, हां, ‘ख’ का अर्थ है कुछ हॉं कुछ न, ‘ग’ का अर्थ है न

२.  प्रश्नावली चार विभागों में विभाजित है- शारीरिक कर्म, मानसिक कर्म, वाचिक कर्म तथा कार्मिक स्वभाव ।

३. ‘क’ का कुल योग अधिक होने पर कर्म की दृष्टि से मनुष्य ‘तामसिक’ कर्म वाला है ।

४. ‘ख’ का कुल योग अधिक होने पर कर्म की दृष्टि से मनुष्य ‘राजसिक’ कर्म का है ।

५. ‘ग’ का कुल योग अधिक होने पर कर्म की दृष्टि से मनुष्य ‘सात्विक’ कर्म का है।

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शारीरिक कर्म

1. मैं विधि रहित हिंसा करता हूं।(अभिधानत: हिंसा)
2. ,, बिना दिया हुआ धन लेता हूं।(अदत्तानाम् उपादानम्)
3. ,, परस्त्री की सेवा करता हूं।(परदारोपसेवा/निषेवणम्)
4. ,, अगम्या स्त्री के साथ समागम करता हूं।(अगम्यागमनम्)
5. ,, प्राणी-वध करता हूं।(वधबन्ध)
6. ,, बन्धन एवम् क्लेशों द्वारा प्राणियों को सताता हूं।(परप्राणोपतापनम्)
7. ,, बलात् पराये धन की चोरी, अपहरण, नाश करता हूं।(चोर्य परेषां द्रव्याणां हरणं, नाशनं)
8. ,, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करता हूं।(अभक्ष्यभक्षणं)
9. ,, दुर्व्यसनों में आसक्त रहता हूं ।(व्यसनेषु अभिषंगता)
10. ,, दर्प, अभिमान और उद्दण्डता से दूसरों को सताता है।(दर्पात् अभिमानात् परेषां उत्तापनम्)
11. ,, न करने योग्य कार्य करता हूं।(अकार्याणाम् अकरणम्)
12. ,, अपवित्र वस्तु का सेवन करता हूं।(अशौचं पानसेवनम्)
13. ,, पापियों के सम्पर्क से दुराचार करता हूं।(दौशील्यं पापसम्पर्के)
14. ,, पाप कर्म मे सहायता करता हूं।(साहाय्यं पापकर्मणि)
15. ,, अपयश देने वाले कार्यों को करता हूं।(अधर्मम्यम् अयशस्यं)
16. ,, जैसा देखा या सुना गया हो, बिना परिवर्तन के वैसा ही करता हूं।(तस्याविकारेण वचनं)
17. ,, मेरी यज्ञ करने में रूचि नहीं है।
मानसिक कर्म

18. मैं पराए धन को अन्यायपूर्वक/अनुचित रूप से ग्रहण करने का विचार करता हूँ।(परद्रव्येषु अभिधानम्)
19. ,, मन से अनिष्ट की चिन्ता करता हूँ।(अनिष्ट चिन्तनं)
20. ,, मिथ्या आग्रह करता हूँ।(वितथ अभिनिवेश)
21. ,, दूसरे से धोखा करता हूँ।(अभिद्रोह:)
22. ,, दूसरे से ईर्ष्या करता हूँ। (असूया)
23. ,, दूसरे के धन की अभिलाषा करता हूँ।(परार्थेषु स्पृहा)
24. ,, धर्म-कार्य में अश्रद्धा करता हूँ।(धर्मकार्येषु अश्रद्धा)
25. ,, पाप-कर्म में हर्ष अनुभव करता हूँ।(पापकर्मणि हर्षणम्)
26. ,, फ़ल की इच्छा रखकर कार्य करता हूँ।(कर्मफ़लप्रेप्सु)
27. ,, मारण-उच्चाटन आदि कार्यों में रूचि रखता हूँ।(शठ)
28. ,, बुरा कार्य (अभिचारादि) करके दूसरे का अनर्थ सोचता हूँ।(दीर्घसूत्री)
29. ,, कर्तव्य और अकर्तव्य जाने बिना कार्य करता हूँ।(कार्याकार्ये)
30. ,, जय और पराजय दोनों में एक समान रहता हूँ।(जयाजयौ)
वाचिक कर्म

31. मैं व्यवहार में कठोर वचन बोलता हूं (परुष्य)
32. ,, मिथ्या-भाषण करता हूं (अनृतं/असत्यं)
33. ,, व्यवहार में दूसरों के दोष कहता हूं (पैशुन्य़ं/परिवाद)
34. ,, असंगत बातें करता हूं (असम्बद्ध प्रलाप)
35. ,, जैसा देखता या सुनता हूं, वैसा ही वाणी के द्वारा कहता हूं(अविकार वचन)
कार्मिक स्वभाव

36. मैं कर्म आरम्भ करके विघ्नों के भय से मध्य में छोड़ देता हूं।
37. ,, विघ्नों के भय से आरम्भ ही नहीं करता ।
38. ,, अनेक विघ्नों का सामना करते हुए आरम्भ कृत कार्य को पुरा करके ही छोडता हूं ।